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उपनिषद का संक्षेप सार

संयोग से ब्रह्मांड में , उसमें भी संयोग से समय की किसी धारा में, उसमें भी संयोग से उत्पन्न जीवन किसी एक संयोगिक घटना से एक ग्रह जिसपर संयोग से ही, किसी कालखंड में अनगिनत पशु पक्षियों में आपको मिला एक मानव जीवन जिसका मूल्य कम ही समझते हैं। यदि पौराणिक ग्रंथों की भाषा में कहा जाए तो कम से कम 84 लाख योनियों में जीवन जीने के बाद, बहुत तपस्या से दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त होता है, मानव चेतना प्राप्त होती है। तो क्या हर चेतना को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह अपना जीवन अपने चुनावों और शर्तों पर जिए, चाहे उसके परिणाम अच्छे हों या बुरे, वे उसके अपने हों। और यदि ऐसा नहीं हो रहा है, तो वह जीवन व्यर्थ है, वह चेतना व्यर्थ जा रही है। उसे व्यर्थ करने वाला कारण और करने वाला दोनों ही इस जीवन के प्रति हिंसात्मक हैं। इतना ही नहीं, जो अपने जीवन के साथ ऐसा होने दे रहा है, वह भी स्वयं के प्रति हिंसा कर रहा है। इसलिए शायद विद्वानों ने कहा, "हिंसा सहना और करना दोनों पाप हैं।" इसीलिए जीवन को जीने का सही तरीका केवल करुणा, आदर और सम्मान है—अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। लेकिन यहाँ दूसरों में भी वही ज...

One is not Born, but rather becomes, women

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This quote is from a book called "The Second Sex"  and english translation of "Le Deuxième Sexe" authored by Simone de Beauvoir. As I started going through the book , I wondered, what are we, even in this so called modern , privileged society, are we human or just our genders? I know people might argue , yes that's why there are some gender specific roles that only a male or a  female is assigned to, because they are better candidate to do it.But doesn't that feel irrational, why are their so many men identifying as women and women as men. But for now let's stick to traditional genders.If I talk about physical labour related work or carrying child related things ,yes, definitely yes, their are gender specific roles. I agree! I am not arguing on the fundamentally designed biological level arguments. People argue because wherever it's a risky job even when an opportunity is given to women, they hesitate ,women just don't shows up, what else of all ...

अव्दैत!

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  मै स्वप्नलोक के कतरों पर ,‌अब तक‌ जीवन को जीती थी, चोरी के सपनों से सींचा‌ हर दिन, सु:ख का बादल जाता था,  पर चोरी तो आख़िर चोरी है, हर सुख के कंकड़ के बदले,  सागर में जितना जल अथाह , उससे ज्यादा ही दु:ख आ‌ जाता था। इस चक्र का कोई अंत भला‌ भी, कहां‌ समझ ही आता‌‌ था, फिर कुछ धुंध हटी इन आंखों‌ की, जाना मैंने कुछ नश्वर को,  थोड़ी सी ही समझ है मेरी, पर मुझ क्षण-भंगुर जैसे को भी उसने जाने कैसे संभांल लिया। जलता बुझता इक दिया थी मैं, न जाने हर चिंगारी के मिट जाने पर भी,  कैसे उसने फिर आंच दिया, सु:ख की है परिभाषा झूठी, दु:ख भी झूठा ही जाना, झूठा मोह है, है झूठी माया  ये सब तो बस उसकी छोटी सी एक झांकी हैं,  मिटती है फिर बनती है, बन कर फिर से मिट जाती है, जो है कहानी हर जीवन की , बहुत 'अलग' तो किसकी ही हो जाती है? उस झाकीं को जो अपना जाने, खुद को जो भी 'मैं' माने,  खुद के लिए जो सु:ख ही चाहे, पर हर दु:ख से जो मुक्ति चाहे, वो ही तो है सु:ख का चोर, पाखंड रोज़ वो रचता है,  है बाह्य-सु:ख ही अंतिम सत्य , इस भ्रम में हर छण को जीता है, इस सत्य को अब पहचान...

गरीबों की जवानी

गरीबों की जवानी – देवी प्रसाद शुक्ल ‘राही’ एक ऐसी कविता जो सिर्फ कविता नहीं है, एक लड़की जिसकी उम्र अभी बचपने और जवानी के बीच होते आपसी रंजिशो के बीच में अटकी हुई है, बचपन की अल्हड़ता, बचपन के संघर्ष को जवानी के संघर्ष बनाने के लिए सामने पैर जमा कर खड़ी है, हर दिन एक जंग का मैदान है, और जवानी के साज और श्रृंगार का जिक्र भी करने का वक्त न हो, कुछ ऐसा जज्बा है|   गरीबों की जवानी रूप से कह दो कि देखें दूसरा घर, मैं गरीबों की जवानी हूँ, मुझे फुर्सत नहीं है। बचपने में मुश्किलों की गोद में पलती रही मैं धूंए की चादर लपेटे, हर घड़ी जलती रही मैं ज्योति की दुल्हन बिठाए, जिंदगी की पालकी में सांस की पगडंडियों पर रात–दिन चलती रही मैं वे खरीदें स्वपन, जिनकी आँख पर सोना चढ़ा हो मैं अभावों की कहानी हूँ, मुझे फुर्सत नहीं है। मानती हूँ मैं, कि मैं भी आदमी का मन लिये हूँ देह की दीवार पर, तस्वीर सा यौवन लिये हूँ भूख की ज्वाला बुझाऊँ, या रचाऊं रासलीला आदमी हूँ, देवताओं से कठिन जीवन लिये हूँ तितलिओ , पूरा चमन है, प्यार का व्यापार कर लो मैं समपर्ण की दीवानी हूँ, मुझे फुर्सत नही है। जी रही हूँ क्योंकि मैं ...

Bliss from the rain

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  If you come in the rain ever, Bring me  All that freshness from the clouds,you have been soaking in, All that aroma from the petrichor , you have been drenching in, All that Nostalgia from your childhood days, close to the hearts ,you were just seeping in , And that Melody from the nature, the one on which are still tuning in! O my light! Bring me a piece from the nature to heal my heart  & Bring me peace from thou nature to wash my soul. That piece & the peace, which only this weather can offer, This gesture of the Earth, which only this rain can bring forth Bring me the love, the laughter, the ecstasy, the bliss,  the infinity and the none, make me whole and make me null, Take everything that's me and yet make me every inch of me!!

अज्ञेय

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 मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ? मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ? मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ? मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ? या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ? पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ? नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ? मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने- फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने ! अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है- क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ? वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है- वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया- मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है ! मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा...

अकथित

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ये कविता लिंग भेद से पथक , समाज के उस वर्ग को सर्मपित है, जिसमें अभी अभी इस चेतना का नवीन संचार होना शुरू मात्र हुआ है कि जीवन का मूल केन्द्र उस व्यक्ति विशेष का ही होना चाहिये , फिर वो चाहे उसके उपरान्त किसी प्रकार की गुलामी ही क्युं न‌ स्विकार ले, क्यूंकि यह गुलामी भी एक स्वतंत्र गुलामी होगी, पर इस चेतना को सदैव जागृत रखना, सदैव इस बात की स्मृति रखना ,उसकी जिम्मेदारी ही है, जब तक भी वह जिवित है‍। पर क्युंकि बेहोशी चैतन्य की, जो अज्ञान से उठती है, इस अधूरे ज्ञान के क्षण में अखरती है ,जब तक वह इस बात को नहीं स्विकारता कि वह अभी भी स्वतंत्र‌ है और हर क्षण घटता हुआ उसके ही चुनावों का नतिजा है, ये उसी स्विकार्य के पहले की आह है, जहां वो समस्या को अन्यत्र कहीं देख रहा है अ भी। परवाह के साए में कत्ल ए आम करते रहो तुम, जिंदगी को मेरी , खमखा ही अपनी जिद की जद्दोजहद में सरेआम करते रहो तुम,  दोखज हो गया है, दोखज़ ही रह जाएगा जो,  जनाजा तो उठेगा नही, मालूम है हमें दरिया मे ही बह जायेगा जो बेबसी में बस एक चलता -फिरता , तुम्हारे फिक्र के कर्जो की गुलामी में दबता,  एक मुर्दा लाश ही रह...