गरीबों की जवानी

गरीबों की जवानी – देवी प्रसाद शुक्ल ‘राही’

एक ऐसी कविता जो सिर्फ कविता नहीं है, एक लड़की जिसकी उम्र अभी बचपने और जवानी के बीच होते आपसी रंजिशो के बीच में अटकी हुई है, बचपन की अल्हड़ता, बचपन के संघर्ष को जवानी के संघर्ष बनाने के लिए सामने पैर जमा कर खड़ी है, हर दिन एक जंग का मैदान है, और जवानी के साज और श्रृंगार का जिक्र भी करने का वक्त न हो, कुछ ऐसा जज्बा है|


 

गरीबों की जवानी


रूप से कह दो कि देखें दूसरा घर,

मैं गरीबों की जवानी हूँ, मुझे फुर्सत नहीं है।

बचपने में मुश्किलों की गोद में पलती रही मैं

धूंए की चादर लपेटे, हर घड़ी जलती रही मैं

ज्योति की दुल्हन बिठाए, जिंदगी की पालकी में

सांस की पगडंडियों पर रात–दिन चलती रही मैं

वे खरीदें स्वपन, जिनकी आँख पर सोना चढ़ा हो

मैं अभावों की कहानी हूँ, मुझे फुर्सत नहीं है।

मानती हूँ मैं, कि मैं भी आदमी का मन लिये हूँ

देह की दीवार पर, तस्वीर सा यौवन लिये हूँ

भूख की ज्वाला बुझाऊँ, या रचाऊं रासलीला

आदमी हूँ, देवताओं से कठिन जीवन लिये हूँ

तितलिओ , पूरा चमन है, प्यार का व्यापार कर लो

मैं समपर्ण की दीवानी हूँ, मुझे फुर्सत नही है।

जी रही हूँ क्योंकि मैं निर्माण की पहली कड़ी हूँ

आदमी की प्रगति बनकर, हर मुसीबत में लड़ी हूँ

मैं समय के पृष्ठ पर श्रम की कहानी लिख रही हूँ

नींद की मदिरा न छिड़को, मैं परीक्षा की घड़ी हूँ

हो जिन्हें अवकाश, खेले रूप रंगों के खिलौने

मैं पसीने की रवानी हूँ, मुझे फुर्सत नही है।

जिंदगी आखिर कहाँ तक सब्र की मूरत गढ़ेगी

घुटन जीवन की अधिक हो, आंच उतनी ही बढ़ेगी

आँधियों को भी बुलाना दर्द वाले जानते हैं

रूढ़ियों की राख तक भी, आंच के सर पर चढ़ेगी

शौक हो जिनको जियें परछाइयों की ओट लेकर

मैं उजाले की निशानी हूँ, मुझे फुर्सत नही है।



~ देवी प्रसाद शुक्ल ‘राही’


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