अकथित
ये कविता लिंग भेद से पथक , समाज के उस वर्ग को सर्मपित है, जिसमें अभी अभी इस चेतना का नवीन संचार होना शुरू मात्र हुआ है कि जीवन का मूल केन्द्र उस व्यक्ति विशेष का ही होना चाहिये , फिर वो चाहे उसके उपरान्त किसी प्रकार की गुलामी ही क्युं न स्विकार ले, क्यूंकि यह गुलामी भी एक स्वतंत्र गुलामी होगी, पर इस चेतना को सदैव जागृत रखना, सदैव इस बात की स्मृति रखना ,उसकी जिम्मेदारी ही है, जब तक भी वह जिवित है।
पर क्युंकि बेहोशी चैतन्य की, जो अज्ञान से उठती है, इस अधूरे ज्ञान के क्षण में अखरती है ,जब तक वह इस बात को नहीं स्विकारता कि वह अभी भी स्वतंत्र है और हर क्षण घटता हुआ उसके ही चुनावों का नतिजा है, ये उसी स्विकार्य के पहले की आह है, जहां वो समस्या को अन्यत्र कहीं देख रहा है अभी।
परवाह के साए में कत्ल ए आम करते रहो तुम,
जिंदगी को मेरी , खमखा ही अपनी जिद की जद्दोजहद में सरेआम करते रहो तुम,
दोखज हो गया है, दोखज़ ही रह जाएगा जो,
जनाजा तो उठेगा नही, मालूम है हमें दरिया मे ही बह जायेगा जो
बेबसी में बस एक चलता -फिरता , तुम्हारे फिक्र के कर्जो की गुलामी में दबता,
एक मुर्दा लाश ही रह जाएगा जो
तुमने बता दिया और कहा मान लो बस -
सोचा नही की जो जिन्दा है वो कैसे जिये गा
मर ही जाएगा वो जो खुद की नही सुनेगा
सोचा तुमने तो होगा ही एक बार को
कभी कभी ही आता है वो बुझता हुआ सा है जो
बुझ ही जाएगा तो फर्क क्या है?
बस जताने को ही है वो - कि उसकी उलफत में हर्फ क्या है?
बात ही नही है शायद उसके होने में अब
ना होने का भी एहसास ना हो इस कदर , उसे उसके ही अंजुमन से निकाला है तुमने
रख लो मेरा साया,मेरा जिस्म ,मेरी रूह, और रख लो मेरा किरदार
बस जिंदा होने का मेरे, एहसास हटा दो मुझसे,
और रख लो जो भी रखना हो, अपने काबू में मेरा
हस्ती मिटा दो कुछ ऐसे मेरी, की मेरे होने में भी मेरा न होना ही हो
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