उपनिषद का संक्षेप सार
संयोग से ब्रह्मांड में , उसमें भी संयोग से समय की किसी धारा में, उसमें भी संयोग से उत्पन्न जीवन किसी एक संयोगिक घटना से एक ग्रह जिसपर संयोग से ही, किसी कालखंड में अनगिनत पशु पक्षियों में आपको मिला एक मानव जीवन जिसका मूल्य कम ही समझते हैं। यदि पौराणिक ग्रंथों की भाषा में कहा जाए तो कम से कम 84 लाख योनियों में जीवन जीने के बाद, बहुत तपस्या से दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त होता है, मानव चेतना प्राप्त होती है। तो क्या हर चेतना को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह अपना जीवन अपने चुनावों और शर्तों पर जिए, चाहे उसके परिणाम अच्छे हों या बुरे, वे उसके अपने हों। और यदि ऐसा नहीं हो रहा है, तो वह जीवन व्यर्थ है, वह चेतना व्यर्थ जा रही है। उसे व्यर्थ करने वाला कारण और करने वाला दोनों ही इस जीवन के प्रति हिंसात्मक हैं। इतना ही नहीं, जो अपने जीवन के साथ ऐसा होने दे रहा है, वह भी स्वयं के प्रति हिंसा कर रहा है। इसलिए शायद विद्वानों ने कहा, "हिंसा सहना और करना दोनों पाप हैं।" इसीलिए जीवन को जीने का सही तरीका केवल करुणा, आदर और सम्मान है—अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। लेकिन यहाँ दूसरों में भी वही जीव है, जिसमें चेतना का संचार है; अन्य तो केवल पशु मात्र हैं।एक जागृत और मुक्त चेतना की पहचान यही है कि वह कोई भी कामना बिना समझ, संयोग या शरीर के दबाव के करती है। हर काम करने से पहले वह स्वयं से प्रश्न करती है कि क्या वह इन तीनों के दबाव में कुछ कर रही है। यदि हाँ, तो उसका कोई परिणाम या प्रक्रिया नहीं होगी, केवल प्रतिवाद और प्रतिवादों की संचित धारा होगी, जिसे उसे और उसके प्रियजनों को भोगना पड़ेगा, और जिस पर उसकी खुद की भी कोई पकड़ नहीं होगी। और यदि नहीं, तो भी उसके परिणाम स्वीकार्य होंगे।लेकिन चेतना के इस मूलभूत स्वभाव को अधिकतर लोग या तो समझना नहीं चाहते या समझ नहीं पाते, क्योंकि यदि इसे समझ लिया, तो मानना पड़ेगा। और यदि मान लिया, तो अब तक जो हिंसा वे स्वयं के प्रति या अन्य जीवों के प्रति कर रहे हैं, उसे छोड़ना होगा। यह बहुत कष्टदायक कार्य होगा—अहंकार, घमंड, झूठी मान्यताओं, और सदियों से चले आ रहे ढकोसलों का बलिदान; अपने छोटे से अहंकार का, जिसे अपनी नज़रों में बहुत बड़ी चीज़ बना रखा है, त्याग; यह स्वीकार करना कि जीवन अब तक गलत केंद्र से जिया गया है, और सही तरीका क्या है, यह जानने की कभी कोशिश ही नहीं की। जो कहा गया, जैसा कहा गया, उसे मान लिया।पर यह मानना कि करुणा, सौहार्द और मुक्ति के सिवाय दूसरा कोई तरीका नहीं है—अब तक हमने हमेशा खुद पर और दूसरों पर हिंसा ही की है, चाहे वह बोलकर की हो या प्रेम और परवाह के नाम पर। क्या हिंसा करने वाला कभी हिंसा सहने वाले से प्रेम की अपेक्षा कर सकता है? लेकिन उस हिंसा को हिंसा कह पाना एक जागृत चेतना की निशानी है, और ऐसा करने में हर तरह की अड़चन व बाधा का एहसास होना सुषुप्त चेतना की पहचान, जड़ता की निशानी है।कोई कह सकता है कि क्या यह ठीक होगा कि चेतना के नाम पर हम बच्चों को छूट दे दें, जिन्हें लोक व्यवहार का कुछ पता ही नहीं? यह तर्क कुछ हद तक सही है। जब एक नया शिशु जन्म लेता है, तो वह सुषुप्त चेतना होता है। जब तक उसे जागृत नहीं किया जाता, वह जो बोला जाएगा, उसे यंत्रवत मानता रहेगा, जैसे पशुओं को सिखाया जाता है। लेकिन यह सही नहीं होगा, यदि वह जागृत चेतना है। चेतना की जागृति का उम्र से कोई विशेष संबंध नहीं है। नचिकेता जैसा बालक इसे 9 वर्ष की आयु में समझ सकता है, वहीं उसके पिता, जो समाज की दृष्टि में सम्मानित व्यासक थे, उन्हें इसका कोई भान नहीं था। वे समाज के ढर्रे पर चलते जा रहे थे। कैसे मान लें कि अब तक जीवन गलत जिया है?जागृत चेतना पर हिंसा शारीरिक नहीं, मानसिक होती है। यदि एक चेतना को दूसरी चेतना से अपने जीवन का कोई भी छोटा-बड़ा निर्णय पूछकर करना पड़े, तो यह हिंसा है। लेकिन यदि सलाह ले, तो यह हिंसा नहीं है। यदि कोई उस चेतना से कहे, "मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ या करती हूँ और तुम्हारा भला चाहता हूँ, इसलिए तुम्हारे जीवन के अधिकतर निर्णय मैं लूँगा/लूँगी, क्योंकि मुझे लगता है कि तुममें अभी समझ की कमी है (लोक व्यवहारिक मापदंड पर)," तो यह हिंसा होगी। लेकिन यदि वही बात अनुनय के रूप में कही जाए और यह सदा ध्यान रखा जाए कि मुझे सामने वाले को प्रेम, अहंकार का रौब, नाम, पैसा या किसी भी प्रकार के प्रलोभन से किसी काम के लिए विवश करने का अधिकार नहीं है—यह उस चेतना के प्रति हिंसा है—तो यह दूसरों के प्रति जागृत चेतना का लक्षण है। इन प्रलोभनों में न फँसना अपने प्रति जागृत चेतना का लक्षण है। अतः वह न स्वयं ऐसा करेगी, न दूसरों को करने देगी। ऐसा करना जीवन का घोर अपमान होगा, धर्म की परिभाषा में पाप होगा—उस जीवन का, जो कम से कम 84 लाख योनियों में जन्म लेने के बाद मानव चेतना तक पहुँचा है। कोई कितना भी कुछ भी कहे, यह अपमान और पाप ही होगा, किसी हत्या के समान। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि पाप करने वाले की नज़र में वह कभी दोषी नहीं होता, और उसे यह बताना कि वह पाप कर रहा है, यह एक जागृत चेतना और जड़ या सुषुप्त चेतना के बीच का संघर्ष है।जीवन को सही ढंग से व्यय करने का केवल एक ही तरीका है, और वह है हर चेतना का सम्मान करना और उसे जीवन का सही अर्थ देना—जो सामाजिक, संयोगिक और शारीरिक दबावों व लालसाओं से मुक्त हो। किंतु इन्हें जीवन की कसौटी पर उतना ही स्थान देना, जो जीवन के अनुकूल हो, प्राकृतिक—न बहुत कम, न बहुत अधिक, आदर भाव से। यही एक मुक्त, जागृत और करुणापूर्ण जीवन की परिभाषा है। इसके लाभ अनेक हैं: मनुष्य अपनी आंतरिक बेईमानियों के प्रति सावधान रहता है, अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर नहीं फोड़ता, बंधा हुआ महसूस नहीं करता, किसी दबाव में निर्णय नहीं लेता, अपने किए कार्यों से बंधा नहीं रहता। वह स्वयं मुक्त जीवन जीता है और दूसरों को भी मुक्ति की ओर प्रेरित करता है। उसके कर्मों को परमात्मा का बल प्राप्त होता है। वह समझता है कि समय हमेशा संदर्भ के अनुसार बदलता है और पुराने ढर्रों पर भेड़चाल में नहीं चलता। सही-गलत, ज्ञान और ठग विद्या, ढकोसलों पर चलते रहना या समय के अनुसार बदलाव अपनाना, सच्चे अर्थों में जीवन का सम्मान या रूढ़िवादी सोच से अपने और दूसरों के जीवन का नाश—इनमें अंतर करना सिखाता है। जीवन क्यों है, क्या है, मिल गया है तो उसे सुख और आनंद से कैसे जिया जाए, इसकी पहचान सिखाता है। आत्मा की सत-चित-आनंद गति को प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम धर्म है। अन्य सभी कुछ केवल काल का कचरा और अहंकार की तृप्ति का बहाना मात्र है।
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