भ्रामक गाँव और सत्यपात्र का रहस्य




एक घनी घाटी में, जहाँ सूरज की किरणें भी मुश्किल से पहुँचती थीं, एक विचित्र गाँव बसा हुआ था, जिसका नाम था 'भ्रामकपुर'। इस गाँव के सभी लोग जन्म से अंधे और बहरे थे, पर उनकी सबसे बड़ी विडंबना यह नहीं थी। उनकी इंद्रियां इस तरह से उल्टी काम करती थीं कि जो होता नहीं था, वह उन्हें दिखता था, और जो बोला नहीं जाता था, वह उन्हें सुनाई देता था। एक साधारण सी आवाज़ उनके लिए युद्ध का शोर बन जाती, और एक मीठा फल उन्हें कड़वा लगता। इस उलटी दुनिया में वे एक-दूसरे से जुड़ने की कोशिश करते, पर उनके हर संवाद में एक गहरा भ्रम होता था। गाँव में हमेशा एक अजीबोगरीब सा कोलाहल रहता था, जहाँ लोग बेतरतीब आवाज़ें निकालते, हाथों से अजीब इशारे करते, और एक-दूसरे से टकराते रहते। उनकी दुनिया में जो नहीं होता था, वही सच था, और जो सच था, वह उनके लिए अस्तित्वहीन था। इस कारण वे हमेशा बड़ी मुश्किल में रहते थे, हर कदम एक चुनौती थी और हर दिन एक नया संकट।

एक दिन, एक सिद्ध साधु, जिनका नाम 'ज्ञानप्रकाश' था, अपनी साधना में लीन थे। अपनी योग शक्ति से उन्हें ज्ञात हुआ कि इस घने जंगल के बीच एक गाँव है जहाँ के लोग इस प्रकार के भ्रामक दुःख भोग रहे हैं। उनका हृदय दया से भर गया और उन्होंने उस गाँव की ओर प्रस्थान किया।

गाँव में प्रवेश करते ही, साधु एक व्यक्ति से टकरा गए, जो सुबह की सैर पर निकला था, पर अपनी भ्रामक इंद्रियों के कारण एक खंभे से टकराने के बाद साधु से टकरा गया। साधु ने उसे अपनी कुटिया में सहारा दिया, जो उन्होंने गाँव के बाहर ही स्थापित की थी। उस व्यक्ति का नाम 'जगत' था, और वह गाँव में सबसे बेवकूफ़ माना जाता था, क्योंकि उसकी इंद्रियों का भ्रम दूसरों से भी अधिक गहरा था।

साधु ने एक विशेष पात्र लिया, जिसमें उन्होंने कुछ दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ मिलाकर एक पेय तैयार किया। वे रोज़ जगत को उसी पात्र से वह दवा पिलाते। उस पात्र का नाम उन्होंने 'सत्यपात्र' रखा। धीरे-धीरे जगत की इंद्रियां ठीक होने लगीं। उसे अब सच दिख रहा था और सच सुनाई दे रहा था। उसके भीतर बल और विवेक दोनों बढ़ने लगे।

इधर, गाँव में बड़ी मुश्किल से लोगों को यह समझ आया कि उनके बीच से एक व्यक्ति, जगत, गायब हो गया है। उनके लिए किसी को ढूँढना एक असंभव कार्य था, पर वे सब मिलकर जंगल की ओर चल पड़े। जंगल में जाते ही, उन पर जंगली जानवरों का हमला हो गया। उनके लिए जानवरों की गर्जना और हमलावर आकृति भी भ्रामक थी, पर खतरा वास्तविक था।

तभी, जगत, जो अब काफी हद तक समझदार और बलवान हो चुका था, वहाँ पहुँचा। उसने अपनी नई दृष्टि और शक्ति का उपयोग करके गाँववालों को जंगली जानवरों से बचाया और उन्हें साधु के आश्रम ले आया। वहाँ उसने उसी सत्यपात्र से बची हुई दवा का एक अंश गाँववालों को भी दिया। थोड़ी देर के लिए, गाँववालों की इंद्रियां भी सही हुईं। उन्होंने देखा कि उनके बीच से निकला वह आदमी, जो सबसे बेवकूफ़ माना जाता था, कितना समझदार और बलवान हो गया है। उनके लिए यह एक चौंकाने वाला अनुभव था।

तभी साधु अपनी कुटिया से बाहर आए और जगत को सत्यपात्र से दवा पिलाई। यह कार्यक्रम रोज़ चलता रहा। गाँववालों ने इस घटनाक्रम को देखा और एक अजीब निष्कर्ष निकाला: "यह पात्र ही चमत्कारी है!" उन्हें लगा कि पात्र में ही कोई जादू है, जो व्यक्ति को ठीक कर देता है।

एक दिन, साधु ज्ञानप्रकाश ने महासमाधि ले ली। जगत अब उस गाँव में रहने का कोई कारण नहीं देखता था, क्योंकि वह समझ गया था कि भ्रामकपुर में उसका सिर्फ पतन ही होगा। उसने साधु के बताए मार्ग पर चलते हुए उस कुटिया से एक दूसरा, मुश्किलों भरा रास्ता अपनाया और हमेशा के लिए अमरपुर चला गया, जहाँ सत्य और ज्ञान का प्रकाश था।

गाँववाले, अपनी भ्रामक समझ के कारण, वह सत्यपात्र लेकर गाँव लौट आए। उन्होंने उस पात्र की पूजा करनी शुरू कर दी, उसे एक पवित्र वस्तु मानकर जश्न मनाते। वे उस पात्र में कुछ भी डालकर खाते, और समझते कि वे सही हो रहे हैं और बलवान बन रहे हैं, जबकि असल में वे और मूर्ख होते जा रहे थे। जब भी कोई उन्हें यह बात समझाने की कोशिश करता, तो वे उसे अपनी सदियों पुरानी परंपरा का अपमान बताते और उसे अपना दुश्मन मान लेते। वे अपनी भ्रामक दुनिया में ही खुश थे, और सत्य को स्वीकार करने की उनकी क्षमता पूरी तरह से समाप्त हो चुकी थी। भ्रामकपुर हमेशा के लिए भ्रम की दुनिया में ही खो गया, और अमरपुर में जगत ने अपना नया, सत्य से भरा जीवन शुरू किया।





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