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उपनिषद का संक्षेप सार

संयोग से ब्रह्मांड में , उसमें भी संयोग से समय की किसी धारा में, उसमें भी संयोग से उत्पन्न जीवन किसी एक संयोगिक घटना से एक ग्रह जिसपर संयोग से ही, किसी कालखंड में अनगिनत पशु पक्षियों में आपको मिला एक मानव जीवन जिसका मूल्य कम ही समझते हैं। यदि पौराणिक ग्रंथों की भाषा में कहा जाए तो कम से कम 84 लाख योनियों में जीवन जीने के बाद, बहुत तपस्या से दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त होता है, मानव चेतना प्राप्त होती है। तो क्या हर चेतना को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह अपना जीवन अपने चुनावों और शर्तों पर जिए, चाहे उसके परिणाम अच्छे हों या बुरे, वे उसके अपने हों। और यदि ऐसा नहीं हो रहा है, तो वह जीवन व्यर्थ है, वह चेतना व्यर्थ जा रही है। उसे व्यर्थ करने वाला कारण और करने वाला दोनों ही इस जीवन के प्रति हिंसात्मक हैं। इतना ही नहीं, जो अपने जीवन के साथ ऐसा होने दे रहा है, वह भी स्वयं के प्रति हिंसा कर रहा है। इसलिए शायद विद्वानों ने कहा, "हिंसा सहना और करना दोनों पाप हैं।" इसीलिए जीवन को जीने का सही तरीका केवल करुणा, आदर और सम्मान है—अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। लेकिन यहाँ दूसरों में भी वही ज...