Bhagwat Geeta Shloka 33, Chapter 3

 सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। 

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।। 

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 33





अर्थ: 

ज्ञानवान व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार काम करता है, जीव अपने स्वभाव (अर्थात् प्रकृति) का ही अनुसरण करता है। ऐसी स्थिति में उपदेश या शासन-वाक्य (अर्थात् निग्रह), वो भी क्या काम आएगा तुम्हारे? 

ज्ञानी पुरुष का केन्द्र आत्मा होगी , जो अज्ञानी पुरुष है उसका केन्द्र प्रकृति होगी । चूंकि आत्मा प्रकृति में सम्पूर्णता खोजती है, बाह्य अन्यत्र कमियों को ठीक करना चाहती है ताकि आत्मा की कमियाँ पूर्ण हो । प्रकृति की दृष्टी में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों को ही सामन्य स्थान प्राप्त है अर्थात् जो ज्ञानी हैं वो जड़ में परिवर्तन नहीं चाहते क्योंकि उन्हें सदैव ही इस बात का भान रहता है कि प्रकृति माँ है वह स्वयं  ही परिवर्तनशील हैं परन्तु चूँकि वे स्वयं भी देहधारी  प्रकृति का हिस्सा मात्र हैं अर्थात् चेतना और जड़ के बीच के अंतर को आदरपूर्वक मान्यता देते हैं, और बाह्य की जगह आन्तरिक विकारों को ठीक करने पर ध्यान देते हैं । अहम् से उपजे विकार कहीं प्रकृति की प्रवृति की आड़ में खुद को सघन न करें इस के लिए सदैव सतर्क एवं तत्पर रहते हैं।

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